अगर तुम चल सको....
क्षितिज यहीं करीब है जो तुम चल सको
बढे हो चन्द कदम तलक अभी न यूं थको
हर पहर सहर है मंज़िलें, निराश क्यों हो तुम
झपक पलक न सोओ कहीं मंज़िलें हों गुम
झलक उठी है भोर भी, अब तो तुम जगो
क्षितिज यहीं करीब है जो तुम चल सको
ठोकर हर सहज ही है जो तुम संवर सको
सरल परीक्षा है सत्य की न तुम डरो
अंत: है जो मैं, स्वयं, अहं भष्म कर सको
भष्मराग है कनक सहेज कर रखो
क्षितिज यहीं करीब है जो तुम चल सको
- आनन्द
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